18 साल बाद मिला खोया बेटा – अधूरी यादों का मिलन
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साल 2007 की एक तपती दोपहर थी। उस समय मैं नौवीं कक्षा का छात्र था और मेरा परिवार एक साधारण मगर खुशहाल जीवन जी रहा था। मेरे पिता, रामनाथ शर्मा, गाँव की प्राथमिक स्कूल में अध्यापक थे। मेरी माँ, सीमा शर्मा, गृहिणी थीं, और हम तीन भाई थे। बड़ा भाई अरुण, मैं – राहुल, और सबसे छोटा, परिवार का लाडला – अनुज, जो उस समय सिर्फ़ चार साल का था।
उस दिन माँ, अनुज को बाज़ार ले गई थीं। वहाँ बहुत भीड़ थी। सब्ज़ियों और खिलौनों की दुकानों के बीच, अनुज एक छोटी रंग-बिरंगी गेंद देखकर ज़िद करने लगा। माँ ने कुछ क्षण के लिए ध्यान हटाया और बस उतना ही काफ़ी था – पलक झपकते ही अनुज कहीं गुम हो गया।
माँ की घबराई हुई चीखें, लोगों से मदद की गुहार, पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज कराना – सब कुछ उसी दिन शुरू हो गया। लेकिन अनुज मानो हवा में विलीन हो गया था।
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तलाश के 18 साल
पिता ने अपनी पूरी ज़िंदगी छोटे बेटे की तलाश में गुज़ार दी। पुलिस से लेकर निजी एजेंसियों तक, अख़बारों में विज्ञापन से लेकर टीवी चैनलों पर अपील तक – कुछ भी अधूरा नहीं छोड़ा।
माँ हर रोज़ पूजा के बाद दरवाज़ा खुला छोड़ देती थीं। उनका विश्वास था कि अगर अनुज कभी वापस आया, तो घर का दरवाज़ा बंद न हो। पिता अक्सर उसकी पुरानी छोटी साइकिल को साफ़ करते रहते, मानो कल ही वह उसे चलाने वाला हो।
हर बार जब किसी पड़ोसी से सुनते कि कहीं ऐसा बच्चा देखा गया है, जो अनुज जैसा दिखता है, वे वहाँ दौड़े चले जाते। लेकिन हर बार मायूस होकर लौट आते। आँसुओं और उम्मीद के बीच 18 साल बीत गए।
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मुलाक़ात का पल
पिछले साल अप्रैल की बात है। मेरा बड़ा भाई अरुण एक बड़े शहर में बिज़नेस ट्रिप पर गया हुआ था। मीटिंग ख़त्म होने के बाद, वह और उसके सहकर्मी एक छोटे से रेस्टोरेंट में खाना खाने गए।
वहाँ एक दुबला-पतला, फीकी त्वचा वाला, लेकिन बेहद गहरी आँखों वाला वेटर आया। अरुण जैसे ही उसकी आँखों से टकराया, उसका दिल ज़ोर से धड़क उठा।
उस युवक की दाहिनी भौंह के ऊपर एक हल्का सा निशान था। बिल्कुल वही निशान, जो अनुज को बचपन में साइकिल से गिरने पर पड़ा था।
अरुण कांपती आवाज़ में बुदबुदाया –
“अ… अनुज? क्या तुम अनुज हो?”
वेटर चौंक गया। उसने उलझन भरी नज़रों से देखा और धीरे से पूछा –
“क्या आप… मुझे जानते हैं?”
अरुण फूट-फूट कर रो पड़ा। उसने उसे गले लगाने की कोशिश की, लेकिन युवक कठोर खड़ा रहा। उसकी आँखों में अजनबीपन और भ्रम झलक रहा था।
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अधूरी यादें
बातचीत में धीरे-धीरे सच सामने आया। बचपन में उसे कहीं और ले जाया गया था। नया नाम दिया गया। बचपन से ही उसे छोटे-मोटे काम करने पर मजबूर किया गया। परिवार, घर, मोहल्ला – सबकी यादें धीरे-धीरे धुंधली हो गईं।
उसने कहा –
“कभी-कभी मुझे एक सपना आता है। उसमें एक औरत खाना बना रही होती है, एक आदमी मुझे गोद में लिए होता है, और एक बड़ा लड़का मेरा हाथ पकड़कर आँगन में दौड़ा रहा होता है। लेकिन जब मैं जागता हूँ, सब कुछ गायब हो जाता है। मुझे समझ नहीं आता कि ये सपना है या सच्चाई…”
अरुण ने रोते हुए कहा –
“ये सपना नहीं है, अनुज। ये हमारी ज़िंदगी की यादें हैं। वो औरत हमारी माँ है, वो आदमी हमारे पिता, और वो बड़ा लड़का मैं हूँ। हम तुम्हें 18 साल से ढूँढ रहे हैं।”
युवक की आँखों से आँसू तो गिरे, लेकिन उसने सिर झुका लिया –
“मुझे माफ़ करना… मुझे सचमुच कुछ याद नहीं।”
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घर वापसी
जब अनुज को लेकर अरुण घर पहुँचा, तो माता-पिता का हाल देखने लायक था। माँ ने बेटे को गले लगा लिया, सिसकते हुए बोलीं –
“मेरे बच्चे, मैं तुझे 18 साल से ढूँढ रही हूँ… क्या तुझे मेरी याद है?”
लेकिन अनुज बस असहज खड़ा रहा। उसकी आँखें खाली थीं। उसने धीरे से कहा –
“माफ़ करना… मुझे कुछ याद नहीं।”
उस दिन घर में आँसू बहुत बहाए गए। लेकिन यह आँसू खुशी के नहीं, बल्कि अधूरेपन के थे। बेटा वापस तो आया, मगर उसकी यादें, उसका बचपन – कहीं खो गए थे।
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नई शुरुआत की कोशिश
दिन-ब-दिन, माँ ने धैर्य रखा। उन्होंने अनुज को बचपन की तस्वीरें दिखाईं। उसके खिलौने, कपड़े, यहाँ तक कि उसकी पसंदीदा गेंद भी। कभी-कभी अनुज हल्की सी मुस्कान दे देता, मानो कहीं कोई याद झिलमिला गई हो, लेकिन अगले ही पल सब धुंधला हो जाता।
एक शाम मैं उसे आँगन में ले गया। मैंने उसके हाथ में वही छोटी गेंद दी और कहा –
“तुझे याद है? तू मुझसे ज़िद करता था कि हर शाम फुटबॉल खेलें।”
अनुज बहुत देर तक गेंद को देखता रहा। उसकी आँखें भर आईं और उसने धीमे स्वर में कहा –
“मैं… याद करना चाहता हूँ। लेकिन ये इतना मुश्किल क्यों है?”
मैंने उसे गले लगाया। उस पल मुझे लगा – भले ही उसकी यादें छिन गई हों, लेकिन खून का रिश्ता कभी मिट नहीं सकता।
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रिश्तों की गहराई
18 साल का इंतज़ार हमें वैसा अनुज नहीं लौटा सका, जैसा हमने खोया था। लेकिन वह अब हमारे बीच था। माँ रोज़ उसे अपने पास बिठाकर कहानियाँ सुनातीं। पिता उसके लिए वही साइकिल फिर से चमकाते।
धीरे-धीरे, घर में अधूरी खुशी लौट आई। अब भी दूरी थी, लेकिन यह दूरी खून के रिश्ते को तोड़ नहीं सकी।
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सीख
ज़िंदगी कभी-कभी हमें अधूरा लौटाती है। अनुज हमें मिला, लेकिन अपनी यादों के बिना। फिर भी, हमने समझा कि परिवार का प्यार सिर्फ़ यादों पर नहीं टिका होता। यह हर धड़कन, हर साँस, और खून की हर बूँद में मौजूद होता है।
अनुज चाहे अपनी पुरानी दुनिया भूल गया हो, लेकिन हमारे लिए वह अब भी वही है – मेरा छोटा भाई, माँ-बाप का प्यारा बेटा, और हमारे परिवार का अनमोल हिस्सा।
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👉 यह कहानी हमें याद दिलाती है कि कभी-कभी चमत्कार अधूरे रूप में भी आते हैं। लेकिन अधूरा चमत्कार भी, चमत्कार ही होता है।
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