एक ऑटोवाले की इंसानियत – कर्म का फल”
दिल्ली का व्यस्त रेलवे स्टेशन, सुबह के आठ बजे। ठंडी हवा और लोगों की हलचल के बीच सुरेश, अधेड़ उम्र का ऑटोवाला, रोज़ की तरह अपनी ऑटो लेकर खड़ा था। चेहरे पर झुर्रियां, आंखों में सच्चाई और होठों पर मुस्कान। जीवन ने उसे बहुत कुछ सिखाया था। उसके लिए हर दिन एक नई चुनौती थी—कभी सवारी मिलती, कभी पूरा दिन खाली। लेकिन हार मानना उसके स्वभाव में नहीं था।
सुरेश की दिनचर्या साधारण लेकिन मेहनती थी। सुबह जल्दी उठना, ऑटो साफ करना, तेल और पानी की जांच करना और फिर स्टेशन पर आकर ऑटो लगाना। उसे पता था कि किसी की मदद करना उसके जीवन का सबसे बड़ा धर्म है। वह लोगों की दिक्कतों को समझता, उनकी परेशानियों को महसूस करता और जितना हो सके मदद करता।
उस सुबह कुछ अलग था। स्टेशन की भीड़ में से एक लड़का रामनाथ नजर आया। उम्र लगभग 16-17 साल, पीठ पर फटा सा बैग, हाथ में छोटा सा थैला। उसकी आंखों में डर और चिंता साफ झलक रही थी। वह हिचकिचाते हुए सुरेश के पास आया।
“चाचा, मुझे एम्स जाना है… लेकिन मेरे पास पैसे नहीं हैं। अगर आप छोड़ दें तो मैं आभारी रहूंगा।” उसकी आवाज़ कांप रही थी।
सुरेश ने लड़के को गौर से देखा। थका हुआ चेहरा, टूटी चप्पल, लेकिन आंखों में सच्चाई और उम्मीद। उसने मुस्कुराया और कहा, “आ जा बेटा, कहां जाना है?”
रामनाथ ने बताया कि वह नीट की परीक्षा देने एम्स आया है। पैसे नहीं होने की वजह से स्टेशन पर ही रात काटी। सुरेश ने उसे ऑटो में बैठाया और रास्ते में उसकी कहानी सुनी। रामनाथ ने बताया कि वह बिहार के छोटे से गांव से आया है, घर में पांच भाई-बहन हैं और पढ़ाई के लिए बहुत संघर्ष कर रहा है।
सुरेश ने उसे दिल से प्रोत्साहित किया, “बेटा, मेहनत कर, पूरी लगन से परीक्षा दे। बाकी ऊपर वाला देखेगा।”
रामनाथ की आंखें भर आईं। उसने वादा किया कि अगर वह सफल हुआ तो सुरेश को जरूर धन्यवाद देगा। सुरेश ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, मुझसे कुछ मांगना हो तो दुआ मांगना। मैं पढ़ा-लिखा नहीं, लेकिन तेरे जैसे सपने देखने वाले बच्चों की आंखों में मुझे ईश्वर दिखता है।”
रामनाथ धीरे-धीरे एम्स के गेट की ओर बढ़ गया। वह दिन सुरेश और रामनाथ दोनों के जीवन में यादगार बन गया।
साल बीतते गए। सुरेश बूढ़ा हो गया। रोज़ ऑटो चलाना कठिन हो गया था। उसकी पीठ में दर्द और कमर में अकड़न बढ़ गई थी। लेकिन उसने हार नहीं मानी। वह सुबह जल्दी उठता, ऑटो की सफाई करता और फिर स्टेशन पर खड़ा हो जाता।
एक दिन, अचानक एक तेज़ ट्रक ने उसकी ऑटो को टक्कर मार दी। ऑटो पलट गई। चीख-पुकार मच गई। सुरेश गंभीर रूप से घायल हो गया। लोग दौड़कर आए, किसी ने 108 नंबर पर कॉल किया। वह बेसुध पड़ा था, चेहरा खून से लथपथ, शरीर की कई हड्डियां टूट चुकी थीं।
तीन दिन तक सुरेश आईसीयू में रहा। मशीनें उसकी सांसों की निगरानी कर रही थीं। तीसरे दिन की रात उसकी उंगलियां हल्की सी हिली। नर्स धीरे से बोली, “सुनिए, आप सुन पा रहे हैं?” सुरेश की पलकें खुलीं। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि वह जिंदा है।
दरवाजा खुला और एक नौजवान डॉक्टर अंदर आया। वही आँखें, वही मुस्कान। सुरेश ठिठक गया।
“मैं रामनाथ हूं… 15 साल पहले आपने मुझे स्टेशन से एम्स छोड़ा था, याद है?”
सुरेश की आंखें डबडबा गईं। रामनाथ ने बताया कि सुरेश की मदद ने उसकी जिंदगी बदल दी। अगर वह उस दिन मदद नहीं करता, तो वह आज डॉक्टर नहीं बन पाता।
रामनाथ ने न सिर्फ सुरेश का इलाज खुद किया, बल्कि हर रिपोर्ट, हर टेस्ट, हर दवा की निगरानी खुद की। अस्पताल का स्टाफ जान गया कि यह केस सिर्फ मरीज का नहीं, बल्कि एक कर्ज और इंसानियत का सवाल था।
तीन महीने बाद सुरेश पूरी तरह ठीक होकर अस्पताल से बाहर आया। उसी दिन रामनाथ ने नई ऑटो की चाबी दी और कहा, “यह उस भलाई की कीमत है जो आपने 15 साल पहले दी थी।”
सुरेश रो पड़ा। उसने कहा, “बेटा, तूने मेरी बुजुर्गी को सार्थक कर दिया।” रामनाथ मुस्कुराया, “चाचा, जब तक मैं हूं, आप फिर ऑटो चलाएंगे
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