"काकी… अरे काकी! सुनाई नहीं देता क्या? ये सब्ज़ी काटने बैठी हो या सपना देख रही हो? ज़रा जल्दी हाथ चलाओ, मुझे दफ्तर जाना है।"
अनामिका की तीखी आवाज़ किचन में गूँज उठी।
काकी के झुर्रियों भरे हाथ काँप रहे थे, पर चेहरे पर हल्की सी मुस्कान थी।
पूरे दिन ताने सुनकर भी वे चुप रहतीं।
रात को लॉन में अकेली बैठीं तो आँखों में आँसू थे।
धीरे से बोलीं—
"अब हाथ काँपते हैं बेटा… आँखें धुंधली हो गई हैं। सबको लगता है मैं निकम्मी हो गई हूँ। पर क्या करूँ… ये उम्र अब रफ़्तार नहीं देती।"
सुमित ने उनकी ओर देखा और बचपन याद कर आँसू रोक न पाया—
"काकी, आप ही तो मेरी माँ हो। आपने कभी खुद के लिए कुछ माँगा?"
काकी मुस्कुराईं—
"बस यही… जब काम धीमे करूँ तो कोई मुझे बोझ न समझे।"
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एक दिन अनामिका को पुराना बक्सा मिला।
उसमें काकी की लिखी चिट्ठी थी—
"बहन, चिंता मत करना। तुम्हारे जाने के बाद मैं तेरे बच्चों को कभी माँ की कमी महसूस नहीं होने दूँगी।"
अनामिका के हाथ काँप गए।
उसे समझ आया—जिस औरत को वह नौकरानी समझती रही, वही तो इस घर की असली नींव है।
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धीरे-धीरे अनामिका बदलने लगी।
अब वही कहती—
"काकी, आप बस आराम कीजिए। घर मेरा है, काम मेरी ज़िम्मेदारी है।"
और काकी?
उन्होंने फिर भी वही पुराना मौन रखा। क्योंकि उनके लिए प्यार जताने के लिए शब्द नहीं, कर्म काफी थे।
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आख़िरी दिनों में जब काकी की साँसें कमजोर हो गईं, तो अनामिका उनके पास बैठी रही।
काकी ने काँपते हाथों से उसका चेहरा थामा और कहा—
"बिटिया… तुम अब सिर्फ बहू नहीं, मेरी अपनी बेटी हो।"
अनामिका रोते-रोते बोली—
"माँ… क्या मैं आपको सच में माँ कह सकती हूँ?"
काकी की मुस्कान ठहर गई, आँखें बंद हो गईं…
और उस पल अनामिका ने सचमुच उन्हें अपनी माँ पा लिया।
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उस दिन के बाद घर का हर कोना काकी की याद से महकने लगा।
अनामिका जब भी पूजा करती, दीपक सबसे पहले काकी की तस्वीर के आगे जलाती।
क्योंकि अब उसे एहसास हो चुका था—
"घर की असली धड़कन दौलत या रफ़्तार नहीं…
बल्कि त्याग और मौन प्रेम है।"
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