"बाबूजी, यह सब क्या है? आप ड्राइंग रूम में भी अपनी दवाइयां फैला देते हैं! आपका कमरा छोटा पड़ जाता है क्या? कभी कोई आए तो क्या कहेगा? किसी मेहमान के लिए बैठने की जगह तो छोड़ दीजिए!" — अपनी बहू की कर्कश आवाज़ सुनकर सुनील जी की तंद्रा टूटी तो वो घबराकर जल्दी-जल्दी अपनी दवाइयां समेटने लगे।
"अरे बहू, यहीं बैठा था, इसलिए। कमरे में जाता तो लेकर जाता, मैं हटा देता हूं।"
"सपना, तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई बाबूजी से ऐसे बात करने की? वह कहीं भी, कैसे भी रह सकते हैं, कुछ भी कहीं भी रख सकते हैं। आइंदा उनसे ऐसे बात की तो ठीक नहीं होगा!" — कुलदीप ने आंखें लाल करते हुए डांटा तो सपना सहम सी गई और सीधी अपने कमरे में चली गई।
सुनील जी ने बेटे के मन में अपने लिए सम्मान और प्यार देखकर कुछ पल पहले बहू के शब्दों से जो भाव मिले थे, वो बेटे के व्यवहार से मिट गए। दिल को सुकून मिला कि उनका बुढ़ापा अच्छे से ही गुज़रेगा।
कुछ देर बाद कामना जी मंदिर से लौटीं और कमरे में आईं तो सुनील जी के चेहरे पर मुस्कान देख पूछ बैठीं,
"क्या हुआ जी? मैं नहीं थी, बहुत मुस्कुरा रहे हो, क्या बात है? क्या पा ली आज जो इतनी राहत-भरी मुस्कान है चेहरे पर?"
"कामना, मां-बाप को क्या चाहिए? बच्चों से प्यार और सम्मान। बस वही मिला है आज मुझे।" — फिर सारी बात बता दी उन्होंने कामना जी को।
"मेरा बेटा है ही ऐसा, वो हम दोनों को बहुत प्यार करता है। कितने दिनों से गांव में देवर जी बुला रहे हैं, लेकिन अपने बेटे का प्यार है जो हमारे पांव बांधे रहा है। हालांकि देवर जी भी हमारे बेटे ही हैं, उनको बच्चों जैसा ही पाला है और विमल का भी हमसे निस्वार्थ प्रेम किसी से छुपा नहीं है जी।"
"कुलदीप से कहकर कभी चलेंगे, मुझे भी गांव की और विमल की बड़ी याद आ रही है।"
"हां कामना, चलेंगे। विमल का आज ही फोन आया था, भैया कहते ही विलग पड़ा। उसे कहा भी कि कुछ दिनों के लिए गांव आऊंगा। वैसे भी विमल का बेटा हुआ था तब हम गांव गए थे और कुछ ही दिनों में वो अपनी फैक्ट्री का मुहूर्त करने वाला है, तो जाना ही होगा। ऐसा करो, कुलदीप से कहकर टिकट कर लो, चलते हैं गांव।"
"हां जी, अभी जाती हूं, कहीं नहीं कहा कर।" — उत्साहित होकर बेटे के कमरे की तरफ बढ़ीं कामना जी।
दरवाजे पर पहुंचीं तो बेटे-बहू में बहस हो रही थी। सुनकर रुक गईं, मुड़ने को ही थीं कि कुलदीप ने ऐसा कुछ कहा जिसे सुनकर कामना जी को विश्वास नहीं हो रहा था।
"सपना, तुम क्यों नहीं समझती? पापा की पेंशन आती है, वो हमारे साथ हैं तो डबल पैसा घर में आ रहा है। उनका खर्चा ही क्या है, बाकी सारा पैसा घर में खर्च होता है, हम अपनी अच्छी लाइफ जी रहे हैं। कम से कम इतना तो सोचो। मैं भी जानता हूं मम्मी और पापा की वजह से तुम्हें बहुत परेशानी होती है, मुझे भी होती है, लेकिन उनका पैसा है तो उनका कुछ नहीं बिगड़ेगा। विमल चाचा तो उन्हें रोज अपने पास बुलाते हैं, उनके पास हमसे ज्यादा संसाधन हैं, लेकिन उसके बाद हमारा क्या होगा सोचो… 40,000 कम नहीं होते।"
"हां पतिदेव, यह तो तुमने बहुत बार समझाया है, लेकिन क्या करूं, उनके साथ रहने में कितनी परेशानी होती है। मेरे दोस्तों को देखो, सब फ्री लाइफ जी रहे हैं… लेकिन छोड़ो, बस थोड़ा शांत रहा करो। मुझे कौन सा उनका रोक-टोक पसंद आता है, पैसे वाला मामला न होता तो कब का भेज दिया होता उन्हें गांव।"
कामना जी के पैरों के नीचे से जैसे किसी ने जमीन खींच ली थी। पैर जैसे अपनी जगह पर जाम गए। इतना स्वार्थ बेटे के मन में… यह सब न सुनती तो वह भ्रम ही अच्छा था। नहीं, नहीं… सही हुआ कि यह सब पता चल गया।
अब ये सवाल-जवाब का समय नहीं था। वह कमरे में घुसीं और कुलदीप की तरफ देखते हुए बोलीं —
"कुलदीप बेटा, मैं सोच रही हूं पापा का सारा पेंशन वाला पैसा वृद्धाश्रम को दान दे दें, तो क्या कहता है बेटा? हर महीने का पैसा किसी के काम आएगा, हमारा क्या है, हमारे लिए तो तू है ही।"
"मम्मी, क्या कह रही हैं आप! होश में तो हैं? इतना सारा पैसा दान में… और उसके बाद का सोचा है? मैं कैसे पाऊंगा?"
बेटे की बात सुनकर कामना जी मुस्कुराने लगीं। उस मुस्कुराहट के पीछे इतना दर्द था कि उनका हृदय छलनी हुआ जा रहा था, लेकिन अपने आप को बहुत मजबूती से संभालते हुए बोलीं —
"बेटा, होश आ गया है मुझे। पापा की पेंशन के लिए तुम हमें बर्दाश्त करते हो — सुन लिया मैंने। और पालने की बात कर रहे हो… जब तुम सिर्फ मेरी दो हथेलियों में समा जाते थे, जब मेरे दूध के कतरे पर जिंदा थे, उस समय मैं स्वार्थी हो जाती तो तुम यहां नहीं होते। पापा ने अपनी सारी जरूरतों को छोड़ दिया, अपने सारे शौक तुम्हारी बढ़ती जरूरतों के सुपुर्द कर दिए। अगर वो उस समय स्वार्थी हो जाते तो सोचो क्या होता।"
"मम्मी, आप गलत समझ रही हैं, मैं तो…" — कुलदीप के मुंह से शब्द नहीं निकले, वह हकलाने लगा।
"नहीं बेटा, मैंने सब सही समझा। अच्छा सुनो, हम कल गांव जा रहे हैं। गाड़ी लेकर जाएंगे, तुम्हारा खरीदा हुआ नहीं है, लेकिन कहोगे तो भेज देंगे। हम अभी भी मां-बाप हैं, कोशिश करेंगे अभी भी तुम्हारा पालन-पोषण करते रहें, लेकिन अब ऐसे नहीं। तुम सामने से कहना, तो हम सोचेंगे। और हां, अब हम गांव में ही रहेंगे। विमल बहुत दिन से बुला रहा है, उसके लिए ही तुमसे कहने आई थी, लेकिन यहां आकर होश आया। तो हमेशा खुश रहो — आज भी मां का मन यही प्रार्थना करेगा ईश्वर से।"
अपनी सशक्त आवाज़ में सब कुछ कहने के बाद बाहर जाने के लिए मुड़ीं तो सामने पति को खड़ा पाकर बिखर गईं। उनके सीने से चिपक कर रो पड़ीं।
"ना रोकना जी… बच्चे स्वार्थी हो सकते हैं, मां-बाप नहीं। अच्छा हुआ सच्चाई का पता चल गया। हमें पता ही नहीं था कि हमारा बेटा पैसे के लिए हमारे साथ है। चलिए, कल ही गांव चलते हैं।"
"कुलदीप, कोशिश करेंगे तुम्हारे पास वापस न आएं। और हां, पेंशन का आधा पैसा भेजूंगा तुम्हारे पास — इसलिए कि कहीं तुम्हारे औलाद को पालने के समय तुम्हें एक पिता का फर्ज याद रहे। कहीं तुम अपना स्वार्थ वहां न दिखा दो।" — कहते हुए सुनील जी के चेहरे पर गहरी लकीरें खिंच गईं।
कुछ ही पलों में वह दुनिया के सबसे कमजोर इंसान लगने लगे।
"पापा, प्लीज़… मुझे माफ कर दीजिए, मुझसे गलती हो गई!" — कहते हुए कुलदीप ने सिर झुका लिया।
लेकिन मां-पापा ने एक बार मुड़कर देखा भी नहीं। आज माता-पिता के विश्वास की डोर टूटी थी।
दूसरे दिन कुलदीप कहता रह गया, लेकिन दोनों ने एक नहीं सुनी। सारा सामान गाड़ी में डाला और अपने साथ सम्मान की गठरी लेकर निकल पड़े — अपने गांव, अपनी मिट्टी की तरफ।
कम से कम इतना तो था कि जीवन सम्मान से गुजर सके। आंखों में उम्मीद और जीवन की नई लौ लेकर।
जीवन थोड़ा मुश्किल होगा, लेकिन भ्रम के आचरण से छुपा हुआ नहीं होगा।गाड़ी जैसे-जैसे शहर की भीड़ से निकलकर खुले रास्तों पर दौड़ने लगी, सुनील जी और कामना जी दोनों खिड़की से बाहर देखते हुए चुपचाप अपने विचारों में डूबे थे। शहर की ऊँची-ऊँची इमारतें, भागती गाड़ियाँ, शोरगुल सब पीछे छूटता जा रहा था। दोनों के मन में अब सिर्फ गांव की मिट्टी की खुशबू और अपने छोटे भाई विमल से मिलने का उत्साह था।
कामना जी ने हल्की आवाज़ में कहा —
“जी, कितना अजीब है न? इंसान सारी जिंदगी शहर की चकाचौंध के पीछे भागता है, और बुढ़ापे में फिर उसी गांव की ओर खिंचता है जहां से निकला था।”
सुनील जी ने गहरी सांस भरते हुए कहा —
“हां कामना, क्योंकि गांव में स्वार्थ की जगह अपनापन है। वहां लोग पैसा देखकर नहीं, दिल देखकर रिश्ते निभाते हैं। यही फर्क है।”
रास्ते में जब गाड़ी खेतों के बीच से गुजर रही थी तो सरसों के पीले फूल, गेहूं की लहलहाती बालियां और आम के पेड़ देखकर दोनों के चेहरे पर वर्षों बाद सच्ची मुस्कान लौट आई।
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गांव में स्वागत
गांव पहुंचते ही विमल घर के बाहर खड़ा मिला। जैसे ही उसने बड़े भाई और भाभी को देखा, दौड़कर गले लगा लिया। उसकी आंखें नम हो गईं।
“भैया… आप आ ही गए। कितने दिनों से बुला रहा था। अब तो यही रहना, गांव को आप दोनों की बहुत जरूरत है।”
कामना जी भी भावुक हो उठीं। “विमल, हमें भी अब शहर की जरूरत नहीं। वहां सिर्फ दिखावा और स्वार्थ मिला। यहां आकर लगता है अब जिंदगी सुकून से गुजरेगी।”
गांव के बच्चे, औरतें, बूढ़े सब इकट्ठा हो गए। सभी ने उनके हाथ छुए, आशीर्वाद लिया। गांव के मंदिर से घंटियों की आवाज आ रही थी। चारों तरफ सादगी, अपनापन और खुशी थी।
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गांव का जीवन
कुछ ही दिनों में उनका जीवन गांव की लय में ढल गया। सुबह खेतों में टहलना, गायों को चारा डालना, तालाब के पास बैठकर मिट्टी की सोंधी खुशबू महसूस करना—यह सब उनके दिल को राहत देता था।
विमल का बेटा, जो अभी छोटा था, हर वक्त सुनील जी के पीछे-पीछे घूमता। वह ‘दादा-दादा’ कहकर गले लग जाता। यह मासूमियत सुनील जी की आंखों में खुशी के आंसू भर देती। कामना जी भी दिनभर बच्चे के संग खेलकर सारी थकान भूल जातीं।
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कुलदीप का पछतावा
उधर शहर में कुलदीप और सपना का घर जैसे सूना हो गया था। शुरुआत में दोनों को लगा कि अब ज्यादा आजादी है, कोई रोक-टोक नहीं। लेकिन कुछ ही दिनों में घर की खाली दीवारें, भोजन की मेज पर माता-पिता की कुर्सी खाली देखकर उन्हें एहसास हुआ कि उन्होंने क्या खो दिया।
कुलदीप अक्सर रात को अपने कमरे में बैठकर सोचता—
“पापा को क्यों जाने दिया? वो तो हर हाल में हमारा सहारा थे। मैंने कैसे पैसे के लिए इतना बड़ा अपराध कर दिया?”
कभी-कभी वह फोन उठाकर कॉल करने की सोचता, लेकिन शर्म और ग्लानि उसे रोक देती।
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विमल का स्नेह
गांव में विमल ने बड़े भाई के लिए अपनी फैक्ट्री में एक खास कमरा बनवाया।
“भैया, आप मेरे गुरु जैसे हैं। मेरी सारी तरक्की आपकी वजह से है। फैक्ट्री का मुहूर्त आपके हाथों से ही करवाना चाहता हूं।”
सुनील जी का हृदय गर्व से भर गया। उन्होंने मन ही मन सोचा—
“जिस बेटे को हमने जन्म दिया उसने हमें ठुकरा दिया, लेकिन जिस भाई को हमने बेटे की तरह पाला, उसने हमें अपना सहारा बना लिया। यही असली रिश्ते हैं।”
मुहूर्त के दिन पूरा गांव इकट्ठा हुआ। सुनील जी और कामना जी ने पूजा करवाई। लोग उनके सम्मान में खड़े होकर ताली बजा रहे थे। उस क्षण उन्हें महसूस हुआ कि असली इज्जत और प्यार गांव की मिट्टी में ही है।
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अंतिम मोड़
एक शाम कुलदीप गांव आया। उसकी आंखों में नींद नहीं थी, चेहरा थका हुआ था।
“पापा… मम्मी… मुझे माफ कर दो। आपके बिना घर खाली है। मेरी औलाद भी बड़ी हो रही है, मुझे डर है कहीं मैं भी वही गलती न कर बैठूं जो मैंने आपके साथ की।”
कामना जी की आंखें भर आईं, पर उन्होंने सख्त आवाज़ में कहा—
“बेटा, माफी शब्द से नहीं मिलती, कर्म से मिलती है। अपने बच्चों को प्यार देना, उन्हें कभी स्वार्थ न सिखाना—यही हमारी माफी होगी।”
सुनील जी ने धीरे से कहा—
“कुलदीप, इंसान की असली संपत्ति पैसा नहीं, बल्कि अपने मां-बाप का आशीर्वाद और सम्मान है। तूने वो खो दिया है, लेकिन अगर सच में सुधरना चाहता है तो अपने बच्चों के लिए सही पिता बन।”
कुलदीप सिर झुकाकर रोने लगा।
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कहानी का संदेश
समय बीतने लगा। सुनील जी और कामना जी गांव में ही रहकर खुशहाल जीवन जीने लगे। उनके लिए अब सम्मान ही सबसे बड़ी दौलत था।
उन्होंने अपने पेंशन का एक हिस्सा गांव के अनाथालय और वृद्धाश्रम को दान देना शुरू किया। हर महीने जब वहां के लोग आकर उनका आशीर्वाद लेते तो उन्हें लगता, जैसे जीवन का असली उद्देश्य यही था।
कामना जी अक्सर कहतीं—
“देखो जी, भगवान ने हमें आंखें खोलने का मौका दिया। अगर शहर में रहते तो शायद जिंदगी भर धोखे के रिश्तों में जीते रहते। अब कम से कम यह सुकून है कि हम अपने लोगों के बीच हैं।”
सुनील जी मुस्कुराते हुए जवाब देते—
“हां कामना, जिंदगी थोड़ी मुश्किल जरूर है, लेकिन अब यह भ्रम से नहीं ढकी है। यह सच्चाई की जिंदगी है, और यही हमें संतोष देती है।”
गांव की संध्या बेला में जब ढलता सूरज खेतों पर अपनी सुनहरी किरणें बिखेरता, तब दोनों पति-पत्नी अपने आंगन की चारपाई पर बैठकर ताजगी भरी हवा में गहरी सांस लेते। उनके चेहरे पर एक संतोष भरी मुस्कान होती—जैसे उन्होंने अपने जीवन का सबसे बड़ा खजाना पा लिया हो: सम्मान और सच्चा अपनापन।
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