हमारा ज़माना : 1960 से 1980 के बीच जन्मी पीढ़ी की अनोखी यात्रा 🌸

 


🌸 हमारा ज़माना : 1960 से 1980 के बीच जन्मी पीढ़ी की अनोखी यात्रा 🌸


मानव जीवन का इतिहास हमेशा बदलता रहा है। हर पीढ़ी अपने साथ नए अनुभव, नई परिस्थितियाँ और नए मूल्य लेकर आती है। लेकिन 1960 से 1980 के बीच जन्मी पीढ़ी एक अद्वितीय पीढ़ी है। यह वह पीढ़ी है जिसने दो युगों का संगम देखा। एक तरफ़ सादगी और परंपरा से भरा बचपन, और दूसरी तरफ़ आधुनिकता, तकनीकी क्रांति और बदलते हुए सामाजिक ढांचे का अनुभव। यही कारण है कि इस पीढ़ी को "संक्रमण काल की पीढ़ी" भी कहा जा सकता है।


इस लेख में हम इस पीढ़ी की जीवन यात्रा, अनुभवों और यादों को विस्तार से समझेंगे।



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1. बचपन की मासूमियत और सादगी


1960 से 1980 के बीच जन्म लेने वाले अधिकांश बच्चे उस दौर में बड़े हुए जब जीवन बहुत सरल था।


न टीवी का शोर, न मोबाइल की घंटियाँ, न इंटरनेट की लत।


उनके पास अगर कुछ था तो वो था बचपन की सच्ची दोस्ती, मोहल्ले की मस्ती और परिवार का अपनापन।



बचपन में खिलौनों की दुकानों का शोर नहीं था।


लड़के गिल्ली-डंडा, कबड्डी, खो-खो, पिट्ठू, लट्टू जैसे खेल खेलते थे।


लड़कियाँ कंचे, गुड्डा-गुड़िया, रस्सी कूदना, पाँच-पत्थर जैसे खेलों में मस्त रहती थीं।



उस समय के बच्चे आज के बच्चों की तरह महंगे खिलौनों के पीछे नहीं भागते थे।


लकड़ी, मिट्टी और धातु से बने खिलौने भी उनके लिए खजाने से कम नहीं होते थे।


बरसात के दिनों में कागज़ की नावें चलाना या खेतों में खेलना ही सबसे बड़ी खुशी होती थी।



आज की पीढ़ी के लिए यह सब सुनना अजीब लगेगा, लेकिन उस दौर में सचमुच "खेल ही जीवन" हुआ करता था।



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2. परिवार का महत्व और संयुक्त परिवार की गर्माहट


उस समय अधिकतर लोग संयुक्त परिवार में रहते थे।


दादा-दादी, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भाई-बहन — सब एक ही छत के नीचे।


बच्चों की परवरिश केवल माता-पिता ही नहीं करते थे, बल्कि पूरा परिवार उनका ध्यान रखता था।



परिवार में बुजुर्गों का सम्मान करना और उनके चरण छूकर आशीर्वाद लेना एक संस्कार था।


दादी कहानियाँ सुनाती थीं।


दादा अपने अनुभव साझा करते थे।


माँ ममता का सागर होती थी।


पिता अनुशासन और मेहनत की सीख देते थे।



आज जहाँ बच्चे अकेलेपन और गैजेट्स में उलझे रहते हैं, वहीं उस दौर में संयुक्त परिवार ही बच्चों की असली पाठशाला होता था।



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3. शिक्षा का संघर्ष और अनुशासन


उस दौर की शिक्षा प्रणाली बहुत अलग थी।


स्कूल साधारण भवनों में चलते थे।


क्लासरूम में आज की तरह स्मार्ट बोर्ड नहीं, बल्कि काली पट्टी और चॉक होती थी।


शिक्षक कठोर भी होते थे और मार्गदर्शक भी।



किताबें पतली थीं लेकिन ज्ञान गहरा।


बच्चे कापी-किताब को कवर चढ़ाकर संभालकर रखते थे।


बैग साधारण होते थे, कई बच्चे तो किताबें बगल में दबाकर ही स्कूल पहुँच जाते थे।



परीक्षाओं में नकल करना आसान नहीं था।


पास होने के लिए मेहनत और ईमानदारी जरूरी थी।


शिक्षक छात्रों को सिर्फ किताब का ज्ञान ही नहीं, बल्कि जीवन के संस्कार भी सिखाते थे।



आज की तुलना में उस समय शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं था, बल्कि अच्छा इंसान बनना भी था।



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4. तकनीकी साधन और संचार


इस पीढ़ी ने तकनीकी बदलावों का अनोखा अनुभव किया।


बचपन में रेडियो ही घर का सबसे बड़ा मनोरंजन साधन था।


समाचार, रामायण-महाभारत की कहानियाँ और फिल्मी गीत रेडियो पर सुने जाते थे।



1970 के दशक में जब ब्लैक एंड व्हाइट टीवी आया, तो मोहल्ले के लोग एक ही घर में जमा होकर कार्यक्रम देखते थे।


रविवार की फ़िल्म, 'छाया गीत', 'चित्रहार' और 'रामायण/महाभारत' देखने के लिए पूरा मोहल्ला एक जगह बैठता था।


टीवी का एंटीना सही करने के लिए बच्चे छत पर दौड़ते थे।



उस समय फोन भी हर घर में नहीं होता था।


गाँव में तो डाकिया ही सबसे बड़ा संदेशवाहक होता था।


चिट्ठियाँ रिश्तों को जोड़ने का सबसे सशक्त साधन थीं।


एक-एक पत्र को पूरा परिवार मिलकर पढ़ता था और बार-बार पढ़ता था।




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5. त्योहार और सामाजिक जीवन


त्योहार उस दौर में केवल धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि सामाजिक मिलन का अवसर भी होते थे।


होली में पिचकारी और रंगों से ज़्यादा, दिलों में अपनापन घुलता था।


दिवाली पर घर-घर जाकर मिठाइयाँ बाँटी जाती थीं।


नवरात्रि, दुर्गापूजा, गणेश उत्सव, ईद या क्रिसमस — सब मिलकर मनाते थे।



त्योहारों की सबसे बड़ी खूबसूरती थी मिलजुलकर आनंद लेना।

आज की तरह “फोटो खींचकर सोशल मीडिया पर डालने” की बजाय, लोग दिल से त्योहार मनाते थे।



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6. मित्रता और सामाजिक मूल्य


इस पीढ़ी की दोस्ती गहरी होती थी।


स्कूल के दोस्त, मोहल्ले के साथी और कॉलेज के यार — ये रिश्ते जीवनभर चलते थे।


पत्र लिखकर या मिलने-जुलने से ही दोस्ती निभाई जाती थी।



सामाजिक मूल्य भी मजबूत थे।


बड़े-बुजुर्गों का सम्मान,


रिश्तों की अहमियत,


और पड़ोसियों से अपनापन — ये सब जीवन का हिस्सा था।



आज के “डिजिटल फ्रेंड्स” की तरह केवल नाम भर की दोस्ती नहीं होती थी, बल्कि सच्चा साथ होता था।



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7. संघर्ष और सफलता


इस पीढ़ी ने जीवन में कई संघर्ष देखे।


संसाधन सीमित थे।


अवसर कम थे।


नौकरी पाना कठिन था।



लेकिन मेहनत और ईमानदारी से लोग अपने सपने पूरे करते थे।


नौकरी छोटी हो या बड़ी, उसे गर्व से किया जाता था।


सरकारी नौकरी तो सपनों का शिखर मानी जाती थी।



यह पीढ़ी वह है जिसने गरीबी से अमीरी तक, अभाव से सम्पन्नता तक का सफर तय किया।



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8. बदलाव की आंधी और नई तकनीक


1980 के बाद देश में जब टीवी रंगीन हुआ, सिनेमा का दौर बदला, कंप्यूटर और मोबाइल आए, तो इस पीढ़ी ने सबसे पहले इन्हें अपनाया।


टाइपराइटर से कंप्यूटर,


चिट्ठियों से ईमेल,


रेडियो से स्मार्टफोन तक — यह सब इन्हीं के सामने हुआ।



उन्होंने अपनी आँखों से देखा कि कैसे दुनिया बदल रही है और कैसे गाँव से लेकर शहर तक नई तकनीक ने जीवन बदल दिया।



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9. आज की पीढ़ी से तुलना


अगर आज की पीढ़ी से तुलना करें तो स्पष्ट अंतर दिखाई देता है।


आज के बच्चे तकनीक से घिरे हैं लेकिन भावनाओं से दूर।


रिश्ते सतही हो गए हैं।


मनोरंजन आभासी हो गया है।



जबकि 1960–1980 की पीढ़ी ने असली रिश्ते, सच्चा आनंद और गहरी भावनाएँ जी हैं।



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10. इस पीढ़ी की असली पहचान


यह पीढ़ी अनोखी है क्योंकि —


1. इसने परंपरा भी देखी और आधुनिकता भी।



2. अभाव भी झेले और समृद्धि भी पाई।



3. गाँव की मिट्टी भी महसूस की और शहर की रौनक भी।



4. मेहनत भी की और सफलता भी पाई।





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निष्कर्ष


1960 से 1980 के बीच जन्मी पीढ़ी सचमुच जीवित इतिहास है।

इनकी यादों में वह दौर छिपा है जब


जीवन सरल था,


रिश्ते सच्चे थे,


और खुशियाँ छोटी-छोटी बातों में मिलती थीं।



आज जब हम उस दौर को याद करते हैं तो लगता है —

वह समय कठिन था, लेकिन कितना सुंदर था।

और शायद इसी वजह से यह पीढ़ी हमेशा एक अमूल्य खजाना बनकर रहेगी।


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