माँ – जो “अनपढ़” होकर भी सबसे बड़ी गुरु बनी
पहला दृश्य – जॉइनिंग लेटर
घर का माहौल उस दिन बहुत अलग था। बरामदे में एक पुराना पंखा घूम रहा था, जिसकी खड़खड़ाहट भी जैसे उत्साह का संगीत बजा रही थी। पिता के हाथों में डाक से आया हुआ एक लिफ़ाफ़ा था। बेटा अभी–अभी बाज़ार से लौटा था। पिता ने मुस्कुराकर कहा—
“आ गया तुम्हारा जॉइनिंग लेटर…”
बेटे की आँखों में चमक भर गई। उसने झपटकर लिफ़ाफ़ा खोला और जल्दी-जल्दी अंग्रेज़ी में लिखी पंक्तियाँ पढ़ने लगा। पिता ध्यान से सुन रहे थे। तभी रसोई से आटा गूँथती माँ दौड़ी-दौड़ी आई। उसके हाथों पर अब भी आटे की परत चिपकी हुई थी। साँस फूली हुई थी, पर चेहरे पर खुशी।
“अरे बेटा! मुझे भी दिखाओ, क्या लिखा है उसमें? सच में नौकरी लग गई क्या?”
माँ की आँखें उत्सुकता से चमक रही थीं।
बेटे ने हँसते हुए, लेकिन कुछ तपाक से कहा—
“अरे माँ! आप क्या पढ़ पाओगी? आप तो अनपढ़ हो!!”
ये शब्द हवा में तीर की तरह तैर गए। माँ की मुस्कान वहीं थम गई। चेहरा ढल सा गया। पिता ने बेटे की ओर देखा—उनकी आँखों में गहरी चुभन थी। उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा—
“सही कह रहा है बेटा… वह अनपढ़ है।”
पिता की आवाज़ में शिकायत नहीं थी, बल्कि एक भारी सच्चाई थी।
कमरे में कुछ देर तक सन्नाटा पसरा रहा। बेटा तो अपने सपनों की उड़ान में खोया था, लेकिन माँ और पिता के दिल में पुराने दिनों की परतें उभर आई थीं।
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दूसरा दृश्य – माँ का बचपन
माँ का असली नाम सरोज था। एक छोटे से गाँव में उसका बचपन बीता। स्कूल दूर था, और परिवार की हालत कमजोर। भाइयों को तो किसी तरह स्कूल भेजा गया, पर बेटियों की पढ़ाई “ज़रूरी” नहीं समझी गई। सरोज चाहकर भी पढ़ न सकी।
जब-जब गाँव के मेले में या किसी शादी-ब्याह में काग़ज़ पर नाम लिखने की बात आती, तो उसका दिल कसक उठता। अक्षर न पहचान पाने की पीड़ा वह भीतर ही भीतर झेलती रही।
लेकिन जीवन ने उसे पढ़ाई के बजाय जिम्मेदारियाँ दीं। कम उम्र में ही उसकी शादी कर दी गई। नया घर, नए लोग, नई ज़िम्मेदारियाँ। वह चुपचाप सब निभाती रही।
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तीसरा दृश्य – माँ का संघर्ष
शादी के कुछ साल बाद बेटे का जन्म हुआ। आर्थिक हालात साधारण थे। पिता स्कूल मास्टर थे, लेकिन तनख़्वाह इतनी कम थी कि महीने का खर्च बड़ी मुश्किल से चलता।
सरोज ने कभी शिकायत नहीं की। बेटे के लिए कपड़े सिलती, खिलौने बनाने की कोशिश करती, और चुपचाप सपने बुनती—“मेरा बेटा पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा।”
उसे भले ही अक्षर न आते हों, पर पढ़ाई की अहमियत समझती थी। यही कारण था कि जब बेटा थोड़ा बड़ा हुआ, तो उसने उसकी किताबों को पूजा की तरह रखा।
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चौथा दृश्य – दीपक की लौ
बिजली अक्सर जाती रहती। गाँव में अंधेरा जल्दी घिर जाता। बेटा जैसे ही किताब लेकर बैठता, माँ पास आकर दीये की लौ तेज कर देती।
“बेटा, आँख मत मलना, मैं बाती काट देती हूँ।”
“अरे माँ, आपको पता भी है मैं क्या पढ़ रहा हूँ?”
“नहीं, लेकिन इतना पता है कि पढ़ाई ही तुझे रोशनी दिखाएगी।”
माँ की यह बात बेटे के कानों में कई बार गूँजती रही, पर शायद उस वक़्त उसने उतनी अहमियत नहीं दी थी।
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पाँचवा दृश्य – स्कूल और माँ का त्याग
हर सुबह माँ बेटे से पहले उठ जाती। खाना बनाती, टिफ़िन तैयार करती, जूते पॉलिश करती। फिर बेटे को दरवाज़े तक छोड़ते हुए हमेशा यही कहती—
“पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनना।”
कभी बेटा नाराज़ होता, कभी आलस करता, पर माँ की वही एक पंक्ति उसकी दिनचर्या की पहचान बन गई।
रिज़ल्ट के दिन जब कार्ड आता, माँ नंबर पढ़ नहीं पाती। लेकिन बेटे का चेहरा देखकर समझ जाती—पास हुआ है या नहीं। और पास होने पर उसकी आँखों में वही चमक आ जाती जो किसी विद्वान के डिग्री मिलने पर आती।
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छठा दृश्य – माँ और आँसू
एक बार गणित का पेपर अच्छा नहीं गया। बेटा रो रहा था। माँ ने आँसू पोंछे और कहा—
“बेटा, कोशिश करने वालों की हार नहीं होती।”
उसे न तो यह कविता पूरी आती थी, न इसका लेखक पता था। पर उसने यह पंक्ति किसी पड़ोसी से सुनी थी और अपने बेटे के दिल में भरोसा जगाने के लिए दोहरा दी।
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सातवाँ दृश्य – माँ का गर्भकाल
जब बेटा माँ के गर्भ में था, तब डॉक्टर ने कहा था—“यह सफ़र मुश्किल होगा।”
लेकिन माँ ने हार नहीं मानी। नौ महीने पूरे संघर्ष के साथ बिताए। अक्सर भूख लगने पर खुद कम खाती और अच्छा हिस्सा बेटे के लिए बचाती।
वह अनपढ़ थी, पर जानती थी कि उसका बेटा स्वस्थ और सक्षम पैदा होना चाहिए।
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आठवाँ दृश्य – बेटे की उड़ान
समय बीतता गया। बेटा शहर पढ़ने चला गया। माँ हर महीने पैसे जोड़-जोड़कर भेजती। कभी अपने लिए कपड़े न लिए, कभी आभूषण न खरीदे, पर बेटे की फीस कभी नहीं रुकी।
फोन पर जब भी बात होती, माँ यही पूछती—
“बेटा, खाना खाता है न समय पर?”
“हाँ माँ, आप चिंता मत करो।”
“बस पढ़ाई में मन लगाना।”
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नौवाँ दृश्य – जॉइनिंग लेटर पर लौटना
अब वही बेटा नौकरी के लिए चुन लिया गया था। यह सपना माँ ने देखा था। लेकिन आज जब उसने माँ को “अनपढ़” कहा, तो उसके त्याग का सम्मान जैसे एक पल को धुँधला हो गया।
पिता ने बेटे की आँखों में आँखें डालकर कहा—
“हाँ बेटा, वह अनपढ़ है।
इसलिए तुम्हारे कॉपियों में गलती नहीं सुधार पाई।
इसलिए तुम्हें गणित नहीं पढ़ा पाई।
लेकिन वही है जिसने तुझे रातों को दीपक जलाकर पढ़ते देखा।
वही है जिसने पेट काटकर तेरी फीस भरी।
वही है जिसने अपने सपने छोड़कर तुझे आसमान दिया।”
कमरे में खामोशी छा गई। बेटा ठिठक गया। माँ की झुकी नज़रों में आँसू तैर रहे थे।
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दसवाँ दृश्य – बेटे का एहसास
बेटे ने धीरे से लेटर माँ के हाथ में रखा।
“माँ, इसे पढ़ तो नहीं पाओगी… लेकिन यह तुम्हारा ही है। अगर तुम न होती, तो यह कागज़ कभी मेरे हाथ में नहीं आता।”
माँ की आँखों से आँसू बह निकले। उसने लेटर को माथे से लगाया और बोली—
“मुझे अक्षर पढ़ना नहीं आता, पर इतना समझ आती हूँ कि अब मेरा बेटा बड़ा आदमी बन गया है।”
बेटे ने माँ के पैर पकड़ लिए।
“माँ, माफ़ कर दो। तुम अनपढ़ नहीं हो। तुम तो मेरी पहली गुरु हो। जो ज्ञान तुमने दिया है, वह किसी किताब में नहीं लिखा।”
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निष्कर्ष
उस दिन बेटे को एहसास हुआ कि माँ अनपढ़ नहीं थी।
वह तो जीवन की सबसे बड़ी ज्ञानी थी—
त्याग में, धैर्य में, संघर्ष में और प्रेम में।
किताबों से जो सीखा, वह उसे नौकरी दिला सका।
लेकिन माँ से जो सीखा, वही उसे इंसान बना सका।
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