14 बोतल मिनरल वाटर

 75 साल का बुज़ुर्ग और 14 बोतल मिनरल वाटर का रहस्य


मेरा नाम राजेश है। मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे में मिनरल वाटर सप्लाई की एक एजेंसी में काम करता हूँ। यह काम बहुत आसान नहीं है—कभी-कभी गर्मी में बोझा उठाना पड़ता है, कभी गली-कूचों में चक्कर लगाने पड़ते हैं—लेकिन फिर भी इसने मेरी रोज़ी-रोटी चला रखी है।


मेरे रोज़ के ग्राहकों में से एक 75 वर्षीय बुज़ुर्ग थे, जिनका एक अलग ही अंदाज़ था। उन्होंने मुझे अपनी ज़िंदगी की एक ऐसी सीख दी, जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता।


अजीब ऑर्डर की शुरुआत


करीब दो साल पहले, मुझे अचानक एक नए पते से ऑर्डर मिला। उस ऑर्डर में लिखा था:

“20 लीटर की 14 बोतलें मिनरल वाटर – रोज़ाना।”


इतना बड़ा ऑर्डर मैंने पहले कभी नहीं देखा था। सामान्यत: तो लोग एक या दो बोतल हफ़्ते में मँगाते थे, बड़े परिवार भी हफ़्ते भर में पाँच–छह बोतलों से ज़्यादा इस्तेमाल नहीं करते थे। मैंने सोचा, शायद उस पते पर कोई नया रेस्टोरेंट खुला है या कोई हॉस्टल होगा।


लेकिन जब मैं दिए गए पते पर पहुँचा, तो देखा कि वह एक पुरानी, जर्जर-सी कोठी थी, जो कस्बे के एक सुनसान कोने में स्थित थी। वहां न कोई दुकान थी, न कोई हलचल। बस एक लकड़ी का पुराना दरवाज़ा और टूटी-फूटी दीवारें।


मैंने दरवाज़ा खटखटाया। अंदर से धीरे-धीरे आहट आई और दरवाज़ा थोड़ा-सा खुला। सामने दुबला-पतला, सफ़ेद दाढ़ी वाला बुज़ुर्ग खड़ा था। उसने ज़्यादा कुछ नहीं कहा, बस एक लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में पकड़ाया और बोला:

“बेटा, बोतलें यहीं रख दो।”


मैंने बोतलें दरवाज़े के पास रख दीं। वह मुस्कुराया, सिर हिलाया और दरवाज़ा बंद कर लिया।


शक की जड़


ऐसा रोज़ होता रहा। मैं बोतलें रखता, वह पैसे लिफ़ाफ़े में दे देता। लेकिन मेरे दिमाग में सवाल घूमता रहा: एक अकेला आदमी रोज़ 280 लीटर पानी का क्या करेगा?


एक दिन मैंने हिम्मत करके पूछ लिया:

“साहब, आप रोज़ इतना पानी क्यों मँगवाते हैं?”


बुज़ुर्ग हल्के-से मुस्कुराए, लेकिन कुछ बोले नहीं। बस उतनी ही शांति से दरवाज़ा बंद कर लिया।


उनकी मुस्कान अजीब थी। उसमें रहस्य भी था और दया भी। लेकिन जवाब न मिलने से मेरे मन का शक और गहरा हो गया।


पुलिस बुलाने का फ़ैसला


लगभग आधा महीना बीत गया। रोज़ वही क्रम चलता रहा—14 बोतलें, लिफ़ाफ़े में पैसे, और दरवाज़ा थोड़ा-सा खुलना।


मेरे मन में तरह-तरह की बातें आने लगीं। कहीं अंदर कोई अवैध काम तो नहीं हो रहा? कहीं वह पानी किसी ग़लत प्रयोग के लिए तो इस्तेमाल नहीं हो रहा?


आख़िरकार, मैंने 112 पर कॉल करके पुलिस को सूचना दी।


अगले दिन मैं पुलिस के दो जवानों के साथ उस घर पहुँचा। मैंने दरवाज़ा खटखटाया।


दरवाज़ा खुला… और सच सामने आया


दरवाज़ा धीरे से खुला। सामने वही बुज़ुर्ग खड़े थे। पुलिस ने नम्रता से कहा:

“बाबूजी, हमें आपसे कुछ पूछना है। क्या हम अंदर देख सकते हैं?”


बुज़ुर्ग ने कुछ पल सोचा, फिर सिर हिलाया और दरवाज़ा पूरा खोल दिया।


हम सब अंदर गए… और जो देखा, उससे हमारी आँखें फटी रह गईं।


कमरे के कोने-कोने में दर्जनों बड़ी प्लास्टिक की बोतलें करीने से रखी थीं। हर बोतल पर मोटे अक्षरों में लिखा था—


“पड़ोसियों के लिए”


“प्राइमरी स्कूल”


“पीएचसी स्वास्थ्य केंद्र”


“आंगनवाड़ी”


“मंदिर के लिए”



पुलिसवाले और मैं हैरान रह गए।


सच्चाई जानकर आँखें भर आईं


बुज़ुर्ग ने शांत स्वर में कहा:

“बेटा, मैं बूढ़ा हो गया हूँ। अब मैं लोगों की शारीरिक मदद नहीं कर सकता। लेकिन मैंने ज़िंदगी में सीखा है कि इंसान को दूसरों की प्यास बुझानी चाहिए। यहाँ आसपास के इलाक़े में साफ़ पानी की बड़ी कमी है। बच्चे अक्सर गंदा पानी पीकर बीमार हो जाते हैं। इसलिए मैंने सोचा, क्यों न अपनी पेंशन से साफ़ पानी खरीदकर सबमें बाँट दूँ।”


उनकी आँखें हल्की-सी नम थीं, लेकिन उनमें गर्व भी था।


तभी पुलिस का एक जवान बोला:

“बाबूजी, आप कितना नेक काम कर रहे हैं! लेकिन आपने किसी को बताया क्यों नहीं?”


बुज़ुर्ग मुस्कुराए और धीरे से बोले:

“पुत्र, दान कभी दिखावे के लिए नहीं करना चाहिए। अगर मैं चुपचाप किसी की प्यास बुझा सकूँ, तो वही सबसे बड़ा सुख है।”


सेना का रिश्ता


बातचीत के दौरान पता चला कि वह बुज़ुर्ग भारतीय सेना के रिटायर्ड जवान थे। उन्होंने युद्ध के दिनों में पानी की क़ीमत को अपनी आँखों से देखा था। रेगिस्तान में जब सैनिक एक-एक घूंट के लिए तरसते थे, तब उन्हें समझ आया कि पानी जीवन से भी ज़्यादा कीमती है।


इसलिए बुढ़ापे में, अपनी बची हुई पेंशन से वह रोज़ 14 बोतलें मँगवाते और आस-पड़ोस के बच्चों, मज़दूरों, और ग़रीब परिवारों में बाँट देते।


बदलाव की शुरुआत


उस दिन मेरा नज़रिया बदल गया। मुझे लगा कि मैं सिर्फ़ पानी पहुँचाने वाला मज़दूर नहीं हूँ, बल्कि एक नेक काम का हिस्सा हूँ। मैंने तय किया कि अब से मैं भी बुज़ुर्ग की मदद करूँगा।


मैंने उनके साथ मिलकर बोतलें बाँटनी शुरू कीं। धीरे-धीरे यह बात पूरे कस्बे में फैल गई। कई लोग उनसे प्रेरित होकर जुड़ने लगे। कुछ लोगों ने दान दिया, कुछ ने समय दिया।


एक महीने के भीतर, उस छोटे से घर का आँगन बच्चों की चहल-पहल से गूंजने लगा। बच्चे बोतलें लिए हँसते-खेलते पानी लेने आते। बुज़ुर्ग के चेहरे पर संतोष की मुस्कान होती।


मेरी सीख


आज जब भी मैं उस घटना को याद करता हूँ, तो समझता हूँ कि कभी-कभी हमारी नज़र में अजीब या संदिग्ध लगने वाली चीज़ों के पीछे भी भलाई छिपी होती है। अगर मैंने उस दिन पुलिस को न बुलाया होता, तो शायद मुझे कभी पता ही नहीं चलता कि एक बूढ़ा सैनिक अपने अकेलेपन में भी कितनी बड़ी सेवा कर रहा है।


उस 75 वर्षीय बुज़ुर्ग की छवि—दुबली-पतली काया, झुर्रियों से भरा चेहरा, लेकिन दिल सोने का—मेरे मन में हमेशा के लिए अंकित हो गई है।


अब जब भी मैं पानी की बोतलें उठाता हूँ, तो मुझे सिर्फ़ मेहनत का बोझ महसूस नहीं होता। मुझे लगता है कि शायद इन बोतलों में किसी की प्यास बुझाने, किसी बच्चे की मुस्कान लाने, और किसी इंसान की ज़िंदगी बचाने की ताक़त छिपी है।


निष्कर्ष


ज़िंदगी की भागदौड़ में हम अक्सर सोचते हैं कि दुनिया स्वार्थ से भरी है। लेकिन ऐसे लोग भी हैं, जो चुपचाप अच्छाई के बीज बोते रहते हैं। वह 75 वर्षीय पूर्व सैनिक हमें यही सिखाते हैं—सच्ची सेवा वही है, जिसमें दिखावा न हो और जो इंसानियत के नाम पर की जाए।


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