सहारा
पिताजी अब उम्रदराज़ हो गए थे।
उनकी चाल धीमी और डगमगाती थी।
घर के गलियारे से लेकर कमरे के दरवाज़े तक पहुँचने के लिए उन्हें अक्सर दीवार का सहारा लेना पड़ता।
जहाँ-जहाँ उनकी हथेलियाँ दीवार से टकरातीं, वहाँ पेंट हल्का पड़ जाता, और दीवार पर उनकी उंगलियों के हल्के-हल्के निशान रह जाते।
शुरुआत में मैंने इन निशानों पर कभी ध्यान नहीं दिया। मुझे तो यह सब जीवन की सामान्य प्रक्रिया लगती थी। लेकिन मेरी पत्नी अक्सर कहती—
“देखो, दीवार कितनी गंदी हो गई है। मेहमान आते हैं तो क्या सोचते होंगे? कुछ तो करो।”
मैं हर बार चुप रह जाता।
अंदर ही अंदर थोड़ा-सा खीज महसूस करता—“सच है, दीवार गंदी दिखती है।”
पर पिताजी से कुछ कह नहीं पाता।
एक दिन का प्रसंग मुझे आज भी याद है।
पिताजी को सिरदर्द था। उन्होंने बालों में तेल लगाया और यूँ ही कमरे से बाहर निकले।
चलते-चलते जब उन्होंने दीवार का सहारा लिया तो हाथ से तेल की हल्की-सी परत दीवार पर चिपक गई।
पत्नी ने देखा तो झुंझला गई।
“अब तो हद हो गई! यह दीवार कोई कपड़ा है जो रोज़ गंदा करेंगे? इनसे कहिए, अब दीवार पकड़ना बंद करें।”
पत्नी की झुंझलाहट देखकर उस दिन मैं भी आपा खो बैठा।
गुस्से में पिताजी से कह दिया—
“पापा, आप दीवार मत पकड़ा कीजिए। बिना सहारे चलने की कोशिश कीजिए। दीवार खराब हो जाती है।”
मेरे शब्द सुनकर पिताजी का चेहरा उतर गया।
उनकी आँखों में जैसे किसी ने अचानक दीप बुझा दिए हों।
वे कुछ नहीं बोले।
बस चुपचाप अपने कमरे में चले गए।
उस दिन के बाद मैंने देखा कि उन्होंने सचमुच दीवार पकड़ना छोड़ दिया।
वो अकेले चलने की कोशिश करते।
कभी हिम्मत करके बिस्तर से उठते और डगमगाते हुए कमरे के भीतर कुछ कदम बढ़ाते।
पर चेहरे पर एक अजीब-सी उदासी, एक खामोश लाचारी साफ झलकती।
कुछ ही दिनों बाद वही हुआ, जिसका मुझे डर था।
एक सुबह वे बाथरूम से लौटते हुए अचानक लड़खड़ाए और ज़ोर से गिर पड़े।
गिरने के बाद वे फिर कभी ठीक से खड़े नहीं हो पाए।
बिस्तर पर पड़े-पड़े उनकी तबियत और बिगड़ गई।
कुछ ही महीनों में उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।
उनकी अंतिम यात्रा के बाद जब मैं अकेला बैठा, तो मेरे भीतर एक गहरा अपराधबोध उमड़ पड़ा।
काश उस दिन मैंने कठोर शब्द न कहे होते…
काश मैंने उनकी दीवार पकड़ने की आदत को गंदगी नहीं, उनकी मजबूरी समझा होता।
शायद वे कुछ साल और हमारे साथ रहते।
साल बीत गए।
घर की मरम्मत और पुताई का समय आया।
पेंटर घर देखने आया तो उसने कहा—
“साहब, यह दीवार तो बहुत खराब है, सब निशान मिटाने होंगे।”
तभी मेरा बेटा, जो अपने दादाजी से बहुत जुड़ा हुआ था, अचानक बोल पड़ा—
“इन निशानों को मत मिटाना। ये दादाजी की यादें हैं।”
पेंटर ठिठक गया।
उसकी आँखों में भी नमी उतर आई।
उसने कहा—
“आप चिंता मत कीजिए। मैं इन्हें मिटाऊँगा नहीं। बल्कि इन्हें और खूबसूरत बना दूँगा।”
और सचमुच उसने वही किया।
जहाँ-जहाँ पिताजी की हथेलियों के निशान थे, उसने रंगों और डिज़ाइन से उन्हें सजाकर एक कलात्मक रूप दे दिया।
अब वे धब्बे नहीं, बल्कि एक सुंदर पेंटिंग की तरह दिखने लगे।
धीरे-धीरे वह दीवार हमारे घर की शान बन गई।
आने वाला हर मेहमान उसे देखता और भावुक होकर कहता—
“ये तो अनोखा और दिल छू लेने वाला सजावट है। जैसे इस घर की दीवारों में प्यार की परछाई बस गई हो।”
समय बीतता गया।
बेटा बड़ा हुआ, पोती का जन्म हुआ।
और मैं भी धीरे-धीरे उसी उम्र में पहुँच गया, जहाँ पिताजी थे।
अब मेरे पैरों में कमजोरी आने लगी।
चलते समय संतुलन बिगड़ जाता, तो कभी-कभी मैं भी दीवार का सहारा ले लेता।
एक दिन अचानक मुझे अपने ही शब्द याद आ गए।
वो दिन, जब मैंने पिताजी से कहा था—“दीवार मत पकड़ा करो।”
दिल में अपराधबोध की वही चुभन जागी।
मैंने सोचा—“नहीं, अब मुझे भी सहारा नहीं लेना चाहिए। कहीं मेरे बच्चे मुझे लेकर भी वैसा ही महसूस न करें।”
मैंने दीवार छोड़कर अकेले चलने की कोशिश की।
लेकिन तभी मेरा बेटा दौड़कर आया और बोला—
“पापा, दीवार पकड़ लीजिए। कहीं गिर न जाएँ।”
उसके शब्द सुनते ही मेरी आँखें भर आईं।
जिस बेटे ने अपने दादाजी की हथेली के निशान बचाने की जिद की थी, वही आज मुझे सहारा देने को कह रहा था।
इतने में मेरी नन्ही पोती आई।
उसकी छोटी-सी हथेली में अपार स्नेह और मासूमियत थी।
उसने मासूमियत से कहा—
“दादाजी, दीवार क्यों पकड़ते हो? मेरा कंधा पकड़ो न…”
उसकी बात सुनकर मेरा दिल पिघल गया।
मैंने काँपते हाथ से उसका नन्हा कंधा थामा और उसने मुझे धीरे-धीरे सोफे तक पहुँचा दिया।
मेरी आँखों से आँसू बह निकले।
मैंने सोचा—“शायद यही जीवन का असली चक्र है। कल मैं अपने पिता को समझ न पाया, पर आज मेरा बेटा और पोती मुझे समझ रहे हैं।”
उसी शाम मेरी पोती अपनी कॉपी लेकर मेरे पास आई।
उसने उसमें एक तस्वीर बनाई थी—
दीवार पर बने मेरे पिताजी के हाथों के निशान।
तस्वीर के नीचे लिखा था—
“अगर हर बच्चा अपने बड़ों का ऐसे सहारा बने, तो कोई बूढ़ा अकेला नहीं होगा।”
उसकी मासूम लिखावट देखकर मैं भीतर तक काँप गया।
मैं अपने कमरे में गया और पिता जी की याद में फूट-फूटकर रो पड़ा।
मन ही मन उनसे माफी माँगी—
“पापा, मुझसे गलती हो गई थी। मैं आपकी तकलीफ़ समझ न सका। माफ कर दीजिए।”
समय किसी को बख्शता नहीं।
आज जो जवान हैं, कल वे भी उम्र के इस पड़ाव से गुजरेंगे।
आज जो दूसरों की कमजोरी समझ नहीं पाते, कल वही लोग सहारे के मोहताज होंगे।
इसलिए ज़रूरी है कि हम अपने बड़ों को सम्मान दें।
उनकी तकलीफ़ समझें।
अपने बच्चों को भी यह सीख दें कि—
बड़ों का सहारा बनना ही सबसे बड़ी नेकी है।
और जब भी उस सजाई हुई दीवार पर मेरी नज़र जाती है, मैं महसूस करता हूँ कि पिताजी आज भी हमारे साथ हैं।
उनके हाथों के निशान हमें यह याद दिलाते हैं कि जीवन की सबसे सच्ची खूबसूरती रिश्तों में छुपे सहारे और अपनापन में है।
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