पिज़्ज़ा के आठ टुकड़े और जीवन का असली अर्थ

 


पिज़्ज़ा के आठ टुकड़े और जीवन का असली अर्थ


“आज कपड़े धोने के लिए ज्यादा मत निकालना,” पत्नी ने कहा तो मुझे ज़रा अजीब लगा। रोज़ तो वह कभी ऐसा नहीं कहती। मैंने जिज्ञासा से पूछा,

“क्यों भला?”


पत्नी बोली,

“अपनी कामवाली बाई दो दिन छुट्टी पर जा रही है।”


मैंने फिर सवाल किया,

“वो क्यों?”


पत्नी ने सहज भाव से बताया,

“वो बोल रही थी कि गणपति के लिए बेटी और नाती से मिलने गाँव जा रही है।”


उसका जवाब सुनकर मैंने भी सिर हिला दिया। मुझे लगा दो दिन कपड़े कम धोने से कोई पहाड़ तो नहीं टूट पड़ेगा।


पत्नी फिर बोली,

“और हाँ, मैं सोच रही थी कि उसे 500 रुपए त्यौहार का बोनस दे दूँ।”


मैंने तुरंत टोका,

“क्यों? अभी दिवाली ही तो आने वाली है। तभी देंगे।”


पत्नी ने गहरी साँस लेकर कहा,

“तुम्हें समझ नहीं आता। वो गरीब औरत है। बेटी-नाती के घर जा रही है। त्यौहार पर उसके हाथ में कुछ अतिरिक्त पैसे होंगे तो उसे भी सुकून मिलेगा। आजकल की महँगाई में उसकी मामूली सी पगार से क्या त्यौहार मन पाएगी?”


मुझे लगा पत्नी ज़रूरत से ज़्यादा भावुक हो रही है। लेकिन तभी उसने हल्की मुस्कान के साथ जोड़ा,

“चलो चिंता मत करो, मैं आज का पिज़्ज़ा खाने का कार्यक्रम रद्द कर देती हूँ। वैसे भी, पाँच सौ रुपए उड़ जाएँगे बासी पाव जैसे उन आठ टुकड़ों के पीछे।”


मैं झल्लाकर बोला,

“वाह! हमारे मुँह से पिज़्ज़ा छीनकर बाई की थाली में डाल रही हो!”


पत्नी ने कोई जवाब नहीं दिया, बस हल्की मुस्कान भर दी। उस समय मुझे गुस्सा तो आया, लेकिन भीतर कहीं उसकी संवेदनशीलता ने मुझे सोच में डाल दिया।



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त्यौहार की छुट्टी


तीन दिन बाद कामवाली बाई लौटी। झाड़ू-पोंछा लगाते-लगाते मैंने यूँ ही पूछ लिया,

“क्या बाई? कैसी रही छुट्टी?”


उसने चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए जवाब दिया,

“बहुत बढ़िया रही साहब। दीदी ने पाँच सौ रुपए दिए थे न, त्यौहार का बोनस, उसी से सब अच्छा हो गया।”


मैंने उत्सुकता से पूछा,

“तो बेटी-नाती से मिलकर आईं? कैसा रहा?”


वो बोली,

“हाँ साब, नाती को गले लगाया, बहुत मज़ा आया। दो दिन में ही 500 रुपए खर्च कर दिए।”


“अच्छा! तो 500 रुपए में क्या-क्या कर लिया?” मैंने पूछ डाला।


उसने झाड़ू चलाते-चलाते बिना रुके पूरा हिसाब सुनाया, जैसे मन में अंकित हो:

“नाती के लिए 150 रुपए का शर्ट लिया, 40 रुपए की गुड़िया, बेटी के लिए 50 रुपए के पेड़े, मंदिर में प्रसाद चढ़ाने को 50 रुपए, आने-जाने का किराया 60 रुपए, बेटी के लिए 25 रुपए की चूड़ियाँ, जमाई के लिए 50 रुपए का बेल्ट, और बचे हुए 75 रुपए नाती को कॉपी-पेंसिल खरीदने के लिए दे दिए।”


उसकी आवाज़ में गर्व और संतोष झलक रहा था।



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मेरी चुप्पी


उसकी बात सुनकर मैं अवाक रह गया। मन ही मन सोचने लगा—सिर्फ़ 500 रुपए में उसने कितना कुछ कर लिया!


मेरी आँखों के सामने पिज़्ज़ा का बड़ा डिब्बा घूम गया। आठ टुकड़ों में कटा हुआ पिज़्ज़ा। मैंने तुलना करनी शुरू कर दी:


पहला टुकड़ा बच्चे की ड्रेस का।


दूसरा टुकड़ा पेड़े का।


तीसरा टुकड़ा मंदिर के प्रसाद का।


चौथा टुकड़ा किराए का।


पाँचवाँ टुकड़ा गुड़िया का।


छठा टुकड़ा बेटी की चूड़ियों का।


सातवाँ टुकड़ा जमाई के बेल्ट का।


आठवाँ टुकड़ा नाती की कॉपी-पेंसिल का।



सिर्फ़ आठ टुकड़ों वाले पिज़्ज़ा में हमने जहाँ बस स्वाद ढूँढा था, वहीं उसने पूरे परिवार का सुख समेट लिया था।



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जीवन की दो राहें


उस पल मेरे मन में एक प्रश्न गूँजने लगा:

क्या हम “जीवन के लिए खर्च” कर रहे हैं, या “खर्च के लिए जीवन” जी रहे हैं?


मेरे लिए 500 रुपए सिर्फ़ एक शाम का शौक़ थे—पिज़्ज़ा और कोल्ड्रिंक।

उसके लिए वही 500 रुपए थे—पूरे त्यौहार का आनंद, अपनों की खुशी और आत्मसम्मान।


हमारे खर्च का उद्देश्य भिन्न था। हमने पैसे को आनंद की वस्तु समझा, उसने रिश्तों की डोर को मज़बूत करने का साधन।



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पत्नी की संवेदनशीलता


उस दिन मैंने पहली बार पत्नी की संवेदनशीलता की गहराई समझी। उसने जो निर्णय लिया, वह त्याग नहीं, बल्कि असली निवेश था।

मेरे लिए त्याग था कि पिज़्ज़ा छोड़ना पड़ा, लेकिन उसकी नज़र में 500 रुपए से एक परिवार का त्यौहार बन गया।


उसने सही कहा था—

“खामख्वाह पाँच सौ रुपए उड़ जाएँगे बासी पाव के आठ टुकड़ों के पीछे।”


असल में, पत्नी ने पहले ही देख लिया था कि 500 रुपए से कहीं बड़ा आनंद मिलेगा।



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समाज का आईना


यह कहानी केवल मेरी या मेरी पत्नी की नहीं। यह तो उस पूरे समाज का आईना है, जहाँ अक्सर मध्यमवर्ग और उच्चवर्ग के लोग अपनी छोटी-छोटी विलासिताओं पर बड़े-बड़े खर्च कर देते हैं, लेकिन उन्हें यह ध्यान नहीं रहता कि वही राशि किसी के जीवन का त्यौहार बन सकती है।


हम रेस्तराँ में 1000 रुपए खर्च कर देते हैं, लेकिन झोपड़ी में रहने वाले मज़दूर के लिए वही 1000 रुपए पूरे महीने की बचत हो सकती है।



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मूल्य और विवेक


इस प्रसंग ने मुझे एक महत्वपूर्ण शिक्षा दी—

पैसा अपने आप में मूल्यवान नहीं है, बल्कि उसके उपयोग से उसकी कीमत तय होती है।


अगर पैसा सिर्फ़ स्वाद या दिखावे पर खर्च हो, तो वह कुछ ही क्षण का आनंद देता है।


अगर वही पैसा किसी के चेहरे पर मुस्कान लाए, तो वह जीवन भर याद रहने वाला सुख बन जाता है।




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पिज़्ज़ा का दूसरा चेहरा


मैंने पिज़्ज़ा हमेशा सिर्फ़ सामने से देखा था—आकर्षक, स्वादिष्ट, रंग-बिरंगा।

लेकिन उस दिन कामवाली बाई ने मुझे उसका दूसरा चेहरा दिखाया।


पिज़्ज़ा के आठ टुकड़े केवल ब्रेड और चीज़ नहीं थे, बल्कि जीवन की आठ सच्चाइयाँ थे—


रिश्ते,


प्रेम,


त्यौहार,


आस्था,


छोटी खुशियाँ,


ज़िम्मेदारी,


साझेदारी,


और अगली पीढ़ी का भविष्य।




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निष्कर्ष


उस दिन मैंने तय किया कि अब खर्च से पहले हमेशा सोचूँगा—

“क्या ये खर्च सिर्फ़ मेरे स्वाद के लिए है, या किसी और के जीवन में भी रोशनी ला सकता है?”


कभी-कभी हमारे छोटे-से त्याग से किसी और का संसार बदल सकता है।

मेरी पत्नी और कामवाली बाई दोनों ने मुझे यह सिखा दिया।


500 रुपए का वह बोनस मेरे लिए एक साधारण सी घटना थी।

लेकिन असल में, उसने मुझे जीवन का दर्शन सिखाया।


अब जब भी पिज़्ज़ा देखता हूँ, मेरे दिमाग़ में उसके आठ टुकड़े जीवन की आठ ज़िम्मेदारियों का प्रतीक बनकर घूम जाते हैं।

और मैं मन ही मन सोचता हूँ—

“हम जीवन के लिए खर्च करें, न कि खर्च के लिए जीवन।”


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