कभी-कभी जीवन में सबसे गहरे रहस्य हमारे अपने घर की चारदीवारी में छिपे होते हैं। जिन लोगों को हम सबसे निकट से जानते हैं, वही अक्सर ऐसे बोझ ढो रहे होते हैं, जिनका अंदाज़ा तक हमें नहीं होता।
मैं, अर्जुन सिंह, उम्र 36 वर्ष, दिल्ली की एक बड़ी लॉजिस्टिक्स कंपनी में चीफ अकाउंटेंट हूँ। दुनिया की नज़र में मेरी ज़िंदगी आरामदायक और व्यवस्थित थी—नौकरी स्थिर, पत्नी मीरा समझदार, और एक प्यारी-सी आठ साल की बेटी। लेकिन घर के भीतर, सबकुछ इतना सहज नहीं था।
क्योंकि मेरे पिता, रघुनाथ सिंह, 65 वर्ष के, गुस्सैल और ज़िद्दी स्वभाव के व्यक्ति थे। बचपन से ही उनकी कठोरता ने मेरे दिल पर गहरे निशान छोड़े थे।
पिता का साया
मेरे पिता का गुस्सा एक अलग ही किस्म का था। छोटी-सी बात पर भी वह भड़क उठते।
मैं शाकाहारी भोजन पसंद करता था—वे ताना मारते,
“अरे! मांस न खाने वाला आदमी कमजोर हो जाता है। मर्द कहलाने लायक नहीं।”
जब मैंने अपनी पत्नी के नाम घर रजिस्टर कराया, तो उनका तिलमिला जाना स्वाभाविक था।
“सबकुछ औरत को सौंप दिया? मूर्ख हो तुम, अर्जुन!”
यहाँ तक कि जब मैंने उनसे टीवी का वॉल्यूम कम करने को कहा ताकि मेरी बेटी की ऑनलाइन क्लास बाधित न हो, उन्होंने गुस्से में रिमोट फेंक दिया।
“क्या इस घर में अब मेरा कोई हक़ नहीं बचा?”
इन सब झगड़ों में, मेरी पत्नी मीरा हमेशा शांति की दीवार बन जाती। उसकी खासियत यही थी कि वह बोलती कम थी, लेकिन जब भी बोलती, माहौल बदल जाता।
वह धीरे से कहती:
“पापा जी, अर्जुन कभी-कभी कड़वी बातें कर देता है, पर उसके दिल में आपकी ही चिंता है।”
और आश्चर्य की बात यह थी कि मेरे पिता तुरंत शांत हो जाते।
मीरा की रहस्यमय शक्ति
कई बार मैं खीज उठता।
“तुम क्यों उन्हें लाड़-प्यार देती हो? इस तरह तो वह और हावी होंगे।”
वह मुस्कुराती और कहती:
“मैं किसी का पक्ष नहीं लेती। बस घर की शांति चाहती हूँ।”
धीरे-धीरे मैंने नोटिस किया कि जब मीरा कुछ दिनों के लिए मायके चली जाती, तो पिता बेचैन हो जाते। खाने का स्वाद उन्हें फीका लगता। वह बड़बड़ाते:
“वह लड़की अच्छा खाना बनाती थी… अब घर सूना लग रहा है।”
यही वह पल था जब मुझे पहली बार अहसास हुआ—मीरा के बिना, यह घर सिर्फ़ एक मकान है।
ज़मीन का झगड़ा
एक शाम ज़मीन का मुद्दा उठा। हमारे गाँव मेरठ में पुश्तैनी ज़मीन थी।
पिता चाहते थे कि उसे बेचकर पूर्वजों की याद में भव्य मकबरा बने।
मैं चाहता था कि ज़मीन बच्चों के भविष्य के लिए सुरक्षित रहे।
झगड़ा भड़क गया।
“तुम मेरी ज़रा भी इज़्ज़त नहीं करते!” —पिता चिल्लाए।
“मैं परिवार के लिए सोचता हूँ, पर आप कभी सुनते ही नहीं।” —मैंने पलटकर कहा।
तभी मीरा आई। बिना कुछ कहे उन्होंने पिता को पानी का गिलास थमाया, फिर मुझे बालकनी में खींच ले गई।
“अर्जुन, वह बूढ़े हैं। अगर तुम थोड़ा झुक जाओगे तो उनका दिल पिघल जाएगा। उनका गुस्सा असल में प्यार है, बस वह उसे जताना नहीं जानते।”
उस रात मैं चुपचाप पिता के साथ खाना खाने बैठा। अंत में उन्होंने मेरी थाली में मटन का टुकड़ा डाल दिया और कहा:
“ठीक है, ज़मीन रखना चाहते हो तो रखो। बस इतना याद रखना—एक दिन पूर्वजों की समाधि तुम बनवाओगे। अगर मैं नहीं कर पाया, तो तुम्हें करना होगा।”
यह उनके दिल का पहला नरम इज़हार था।
अटारी का रहस्य
ज़िंदगी कुछ स्थिर हुई थी, लेकिन एक शाम अटारी में पुराने टैक्स रिकॉर्ड ढूँढ़ते हुए मुझे एक पुराना लकड़ी का बक्सा मिला।
उसमें धुंधले कागज़, कुछ चिट्ठियाँ और एक तस्वीर थी। तस्वीर में मेरे पिता जवान थे, एक अजनबी औरत के साथ, जिसकी गोद में बच्चा था। वह बच्चा हममें से कोई नहीं था।
चिट्ठियों में और भी चौंकाने वाली बातें थीं—1980 के दशक की पुलिस रिपोर्टें। लिखा था कि मेरठ में ज़मीन के विवाद को लेकर हुए झगड़े में हत्या का आरोप लगा था। बाद में समझौते से मामला दबा दिया गया।
मेरे पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
मीरा का सच
मैंने अगली सुबह मीरा से पूछा:
“क्या तुमने कभी शालिनी नाम की किसी औरत के बारे में सुना है?”
उसका हाथ एक पल को थम गया। फिर उसने धीरे से कहा:
“अर्जुन… मुझे पता था कि एक दिन तुम्हें सब पता चल जाएगा।”
उसने पूरी सच्चाई बताई—
जब पिता तीस साल के थे, ज़मीन को लेकर हुए झगड़े में एक आदमी की मौत हो गई। पिता पर हत्या का आरोप लगा। समझौते से वह छूट गए, पर अपराधबोध जीवनभर उनकी परछाई बन गया।
तस्वीर में जो औरत थी, वह मारे गए आदमी की विधवा थी। बच्चा उसका था।
मीरा ने कहा:
“मुझे यह सब हमारी शादी से पहले ही पता था। मेरे पिता ने चेतावनी दी थी—रघुनाथ सिंह बुरे आदमी नहीं, लेकिन उनके अंदर आग है। अगर तुम उनके बेटे से शादी करती हो, तो तुम्हें उनके तूफ़ानों को शांत करना आना चाहिए।”
अब मैं समझा कि मीरा हमेशा इतनी सहजता से क्यों बोलती थी। वह सिर्फ़ शांति बनाए रखने के लिए नहीं, बल्कि एक भयानक अतीत को ढकने के लिए ऐसा करती थी।
पिता से सामना
कुछ दिनों बाद, मैंने साहस जुटाकर पिता से पूछा:
“बाबा, आपने हमें कभी सच क्यों नहीं बताया?”
वह देर तक चुप रहे। उनकी आँखों में नमी थी।
“क्योंकि इंसान के पाप उसके साथ ही मर जाने चाहिए। मैं नहीं चाहता था कि मेरे बच्चे मेरी छाया में बड़े हों।”
मैं कुछ कह नहीं सका। गुस्से की जगह सिर्फ़ दर्द था।
नया नज़रिया
उस रात, मैंने मीरा को गले लगाया और कहा:
“तुम सिर्फ़ मेरी पत्नी नहीं हो, इस परिवार की रक्षक हो। अगर तुम न होती, तो हम कबके टूट चुके होते।”
वह मुस्कुराई, लेकिन उसकी आँखों में आँसू थे।
“कभी-कभी, अर्जुन, परिवार को जोड़कर रखने के लिए सच से भी बड़ा काम चुप्पी करती है।”
तब से मैंने पिता को अलग नज़र से देखना शुरू किया। उनका गुस्सा अब मुझे सिर्फ़ ज़िद नहीं, बल्कि अपराधबोध और दर्द की गूंज लगता।
मीरा अब मुझे और भी असाधारण लगने लगी। वह सिर्फ़ बहू नहीं थी—वह इस घर की शांत रक्षक थी।
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उपसंहार
आज जब मैं अपनी बेटी को देखता हूँ, तो सोचता हूँ—कभी न कभी वह भी अपने दादा को समझेगी। शायद तब तक मैं उसे यह राज़ न बताऊँ।
क्योंकि मैंने सीखा है—हर परिवार का अपना बोझ होता है। और कभी-कभी, प्यार और धैर्य ही उस बोझ को हल्का करने का एकमात्र तरीका है।
मीरा ने यह बोझ अकेले उठाया, और उसी की वजह से हमारा घर अब भी एक घर है—न कि टूटी हुई कहानियों का मलबा।
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